कई साल गुज़रे ..
कई मौसम आये
कई मौसम गए ..
कुछ साथ रह गए
कुछ यादें साथ ले गए ....
हर बार मेरे दरीचों में कुछ नयी खुशबू लिए मेरे दोस्त आया करते थे ....
सुबह शाम अपने सफ़र की कहानी के धागों में मुझे मोती सा पिरोया करते थे ...
कभी कभी तो रात को एक साथ खाब में डर कर नींद खुल जाती थी ...
मगर हम एक दूसरे की हिम्मत बंधा कर फिर से सो जाते थे ...
सुबह होते ही एक साथ नाश्ता भी करते और दोपहर को खेल कूद ....
हँसते खेलते यूँ ही दिन गुज़रे ..
मीठे - कड़वे , सच्चे - झूठे
जैसे भी बन जाए बातों का ताना बाना
बस लम्हे जुड़ जाते थे .....
पास ही की झोंपड़ी में काका काकी भी रहते थे ...
बड़े पते के नुस्खे आते जाते कह जाते थे ...
साफ़ दिल के थे काका , काकी से बहुत प्यार करते थे ...
काकी की एक खाँसी पर पूरे मोहल्ले को सर पर उठा लिया करते थे ...
मगर बुढ़ापे की मार से बच ना पायी काकी ...
बस अब सारा दिन मेरे दोस्तों के साथ ही काका खेला करते थे ....
और हाँ ... मेरे दोस्तों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी उनको परेशान करने में ...
दिन भर के खेल कूद में काका की सारी झोंपड़ी को गन्दा करके ही
शाम को मेरे दरीचों में बैठक जमाते थे ..
उबासी लेते मेरे दोस्त सोते वक़्त बड़े खूबसूरत लगते थे ...
मगर अचानक एक दिन पिताजी का ट्रांसफ़र हो गया ...
और मै उनके साथ दूसरे शहर चला गया ...
आधे रास्ते तक मेरे दोस्तों ने मेरा पीछा किया ...
मगर वो लौट गए.....
शायद मेरे दरीचों में कुछ किस्से अभी बाक़ी रह गए थे ....
और काका भी तो थे वहाँ पर ....
कई साल गुज़रे .....
मौसम फिर आया फिर गया ...
पिताजी का ट्रांसफ़र फिर हुआ , उसी शहर में ...
मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना था .....
मैंने बड़े ज़ोर - शोर से तैय्यारी करना शुरू कर दिया .....
भई.. मै अपने पुराने दोस्तों से जो मिलने जा रहा था ....
मगर अब शहर में घोडा गाड़ी की जगह ऑटो रिक्शा आ गया था ...
ठेल पर बिकने वाली तरकारी शो रूम में सज रही थी ...
ऑटो मेरे घर की गली में मुड़ा तो देखा ...
कोई ऊबड़ खाबड़ नहीं , पेट का पानी यौं का त्यौं ...
सड़क , कांच की तरह चमक रही थी ....
और जैसे ही घर आया ... मैंने घर पर एक नज़र डाली ..
तो जैसे मानो पाँव के नीचे की ज़मीन आसमान में बदल गयी हो ....
मै भाग कर दरीचों की तरफ दौड़ा ...
आँखें ठहर सी गयीं , वहाँ का सारा नक्शा ही बदल गया था ....
सब खाली खाली होने का एहसास ...
एक ही पल में मेरे शून्य में भीड़ हो गयी ....
मै मायूस सी सूरत लिए ज़मीन से सवाल पूछते पूछते घर से बाहर निकल गया ...
सड़क के सहारे सहारे दूर तक निकल गया ....
शाम हुई , रात हुई .... मेरा कोई दोस्त मुझसे मिलने नहीं आया ...
शायद अब वहाँ कोई नहीं था ...
और हाँ .... अब मेरे दरीचों में भी वो खुशबू नहीं थी ... ना पास की झोंपड़ी ...
काका का तो पता नहीं ....
पर अब उस जगह एक शौपिंग कॉम्पलेक्स खुल गया है ....
----------------------------------- विक्रम चौधरी --------------------------------------------------------