Thursday, September 24, 2009

" शाम का वक़्त था........."















शाम का वक़्त था.. सूरज की ठंडी ठंडी किरणों का ढलने का वक़्त था.. पंछी भी अपनी रहगुज़र के संग उड़ चले थे अपने परवाज़ की ओर ... समंदर की गहरी सी सांस लेने की आवाज़ कुछ ऐसे थी , की मानो कब से शाम के ढलने के इंतज़ार में बैठी हो... सब उड़ा उड़ा सा लग रहा था.. कहीं कुछ जुदा जुदा सा लग रहा था... दिन ख़त्म हुआ... शाम लौटी अपने आशियाने की पनाह में... रात बैठी उसका कब से इंतज़ार कर रही थी.. शायद कुछ मेरा ही आगाज़ कर रही थी... चाँद भी था चुप चुप सा.. अपनी ही दुनिया में गुमसुम सा ... देख रहा था मुझे बड़ी देर से , शाम के पंख निहारते हुए.. बैठा था वो भी अपनी रौशनी से मुझे रोशन करने के लिए... मगर ना जाने कब ये कमबख्त रात मुझे चकमा दे गयी... शाम होते ही ना जाने कहाँ ले कर मुझे सो गयी... मै खाब ही में चाँद को ताकता रहा ... खिली खिली चाँदनी को ना जाने क्यों अपनी झोली में भरता रहा ... अचानक से आँख खुली... जिसका डर था... होना वही था... मै चाँद को खाब में तकते तकते ना जाने कब अपने पाँव धुप में जला बैठा... खिली खिली चाँदनी को उस गर्म आँगन में रुला बैठा... पंछी भी वहीँ थे , मुझे देख कर वो भी हंस रहे थे.... कितना पागल है... देखो... मुद्दत हो गयी मगर इसको नींद ना आई.... हर बार चाँदनी चाँदनी करते हुए इस समंदर की रेत में छुप जाता है ... ना जाने किसको ढूंढता है... दिन को ही रात कहता है... देखो फिर जा रहा है... समंदर के किनारे ... फिर शाम को चाँद की ही ओर देखेगा... और फिर सो जाएगा इस रेत में.. लगता है....शायद पागल है ... खाब में ही चाँद को देखता है... अरे ! शाम हो गयी... चलो चलो... देर जायेगी... चाँद को भी तो देखना है.......


********************* विक्रम चौधरी ************************

Monday, September 21, 2009

" मोरे मन की हार........."









" मोरे मन की हार........."

मोरे मन की हार से मोरे मन की जीत …
कोरे कंठ की राख पे माटी भई पलीत …

आंसू से आंसू जुड़े नयन भये भयभीत …
छत पे चुघ चुघ बाजरा पंछी ढूंढे प्रीत …
पंख पे त्रिशूल काढे पंछी गावे गीत …
मन मेरा अघोर माँगे भड़के देह सीत …
खुर की नाल टाप छोड़े कोस होवे ढीट …
मेघ सूखी आग फूँके मौत खोवे रीत …

मोरे मन की हार से मोरे मन की जीत …
कोरे कंठ की राख पे माटी भई पलीत …

जगत मिथ्या.... करम मिथ्या.... धरम मिथ्या ....
सांच पे आँच पड़ी रे मौला ....
शर्म मिथ्या.... भरम मिथ्या.... जनम मिथ्या ....
आज पे गाज गिरी रे मौला ....

भोजन में ढूंढे केसर ....
भर मन मन जी इठ्लावे ....
कोयल के संग फिरूं मै ....
घट मन मन तू बहलावे ....

भोज पान बादरी की भूंख पे मसान है .…
भोर छान बावड़ी की धूप खूं कमान है .…

सब्र कर रे सब्र कर....
रे इंसान कुछ सब्र कर....
है धुंध में अटका जहां....
रे इंसान तू सब्र कर....

**************** विक्रम चौधरी ******************

“ आत्मा का हरण …..….”























“ आत्मा का हरण …..….”




जिस्म से आईने तक का फासला ….इंसान के वजूद का एक भ्रमित सच है …. जिसके भ्रम में हम खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं .....
अपने रूप की परतों से ढकी अविश्वसनीय सूरत को हम , मन ही मन निहारते रहते हैं ... और अपने स्वार्थ और परिस्थितियों के अनुरूप जो रूप हमको चाहिए , उसका बड़ी ही खूबसूरती से आलिंगन कर लेते हैं , और ये भूल जाते हैं , की ये मात्र हमारी कल्पना है , कोई प्रकृति या इश्वर का सच नहीं ..... जिसे ओढ़ कर हम खुद को दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान समझ लेते हैं ........



और खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं ..................



रौशनी हो या अँधेरा , सच की तस्वीर कहीं नहीं छुप सकती . मगर फिर भी हम रौशनी के अस्तित्व के समक्ष अँधेरे को अस्तित्व विहीन कर देते हैं . जबकि अँधेरा भी खुद में एक सम्पूर्ण संसार है ..........

बस अंतर इतना है की हमारी आँखें उस अँधेरे में अपने रूप को नहीं देख पाती … और एक ही पल में हम अँधेरे को नकार जाते हैं … क्योंकि वो हमे हमारी सुन्दर तस्वीर नहीं दिखाता .....… इसलिए हम अपनी ही मर्ज़ी से अपने संसार को रौशनी के हवाले करके …..



खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं ……...….



कौन कहता है  कि आत्मा नहीं मरती … आत्मा मरती है … हाँ .... आत्मा मरती है ......
जब आत्मा का खून जिस्म की पनाह में जा कर रूप की झूंठी सुन्दरता को सहेजता है ,,, जब अर्थ की पैमाईश आत्मा की आजमाईश से होती है .... जब रिश्तों का भरम माया के जंजाल से निकल कर इंसान की फितरत में बदलता है ...... जब वक़्त की बिसात पर इंसान खुद बाज़ीगर बन कर चाल चलता है ...... जब अजन्मे बच्चे की हसरत पे इंसान खुद क़यामत के रास्ते खोल देता है ..... जब माँ की गोद में बैठ कर तिजारत की बात होती है ..... जब परमात्मा के बनाए क़ायदों पर इंसान सवाल उठाता है .........
तब ..... सच में आत्मा मर जाती है ..... किसी ने हरण किया है हमारी आत्मा का …. पता नहीं क्यों कुछ भी होने का एहसास ख़त्म हो रहा है …….. सब चलता हुआ दिखता है .... मगर इंसान खुद को जब रुका हुआ मान ले तो सच में हमे समझ लेना चाहिए .... कि  कहीं ना कहीं हमारे अन्दर कुछ ऐसा ग़लत हो रहा है ... जिसका कोई समाधान हमारे पास नहीं है …. और हाँ ..., जब हम किसी समस्या को सुलझाने में असमर्थ हो जाते हैं ..... या फिर ये कहें  कि उस समस्या का कोई हल ही नहीं है …. तो समझो …

सच में हमारी आत्मा का किसी ने हरण किया है ………….

ना जाने ये कैसा अनचाहा सच है … इंसान जिंदा तो है … मगर आत्मा का कहीं पता नहीं …. हम खुद ही अपने आप से दूर होने के रास्ते खोजते रहते हैं ….
कभी मंदिर में , कभी मस्जिद , कभी  गुरूद्वारे  में कभी गिरजा घर में …. तो कभी किसी ऐसी जगह जहाँ इश्वर के होने का प्रमाण मिलता हैं …. …...
हम खुद ही अलग अलग रूप में इस भ्रम का शिकार हैं ….. क्या ढूँढने निकल पड़े हैं …?  ये खुद को भी नहीं मालूम … और अगर किसी से पूछो , तो वही इंसान हमे इश्वर की अलग अलग परिभाषा समझा कर सन्तुष्ट करने की कोशिश करता है ... जो हमारी ही तरह इस भ्रम का शिकार है .......



और खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेता है ...............



हर किसी को एक कठिन सी दिखने वाली सीड़ी ही सच नज़र आती है ….. कोई सीधे तरीके से आत्मा के रूप को समझना ही नहीं  चाहता ....…
बस एक बार … मात्र एक बार इंसान इश्वर को सीधे सीधे रास्ते समझने की कोशिश करे तो सब कुछ आसान हो सकता है …. मगर हम तो खुद ही उस तक पहुँचने के रास्ते को कठिन बनाते जा रहे हैं …. जबकि वो हमेशा हमारे ही साथ चलता , बैठता , उठता , खाता , पीता , सोता और सांस लेता है … वो हमसे एक पल के लिए भी दूर नहीं होता … मगर हम ही हैं …. जो इश्वर से दूरी बना कर चलते हैं ..... व्यर्थ के कर्म - काण्ड और नीतियों के वशीभूत हो कर हम अपनी आत्मा को इस क़ाबिल ही नहीं बनने देते  कि वो खुद हमसे बोल सके  कि  , मैं जिंदा हूँ .. और … मै ही इश्वर का एक सच्चा रूप हूँ … .
आत्मा सारा जीवन उस शरीर में धारण मन को ये समझाती रहती है ….  कि  बस एक बार वो अपनी आत्मा को महसूस तो करे ….. और देखे  कि  … सच खुली आँखें ज़यादा बताती हैं … या बंद आँखों से दिखने वाला आध्यात्मिक संसार सच्चा है ….. मगर नहीं … हमे शायद कुछ और ही चाहिए ….. हम कभी अपनी आत्मा को महसूस नहीं कर पायेंगे ..…
बस ... मन , दिमाग़ और  समाज  के  फलते  फूलते  जिस्म  के  श्रृंगार  के  अधीन  हो  कर  …..

खुद ही अपनी आत्मा का हरण करते रहेंगे ...... शायद यही हमारा सच है..……………


“ आत्मा एक ऐसा रूप है …. जिसे कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता … … मगर हम खुद अपनी ही मूर्खता के वशीभूत हो कर …… उसके हरण की तैय्यारी कर लेते हैं ……
और हाँ … कभी कभी हम ऐसे जंजाल में फँस जाते हैं  कि  कब हमारी आत्मा का हरण हो जाता है … हमे पता ही नहीं चलता ……… आत्मा हो कर भी अपना प्रभाव भूल जाती है …. शरीर लगता है  कि मानो किसी शिकारी की क़ैद में हमेशा के लिए क़ैद हो गया है … और आत्मा शरीर को ढूँढने निकल पड़ी है … लेकिन वो तो खुद नहीं जानती  कि  उसका तो कब का हरण हो चुका है …. …. …. अब तो बस सब आईने की तरह है … दिखता तो सब है , मगर छूने का एहसास ख़त्म हो चुका है …....”



************** विक्रम चौधरी ***************

Saturday, September 19, 2009

“ कल्पना और हकीक़त …...”











“ कल्पना और हकीक़त …..” कल्पनाएँ कभी हकीक़त में नहीं बदलतीं , यदि उनमें यथार्थ का आधार न हो तो ….. जीवन की कल्पना ज़िन्दगी के संघर्ष पथ के चौराहों की एक ऐसी राहगीर है …जो हमेशा आपके साथ चलती है …मगर अनजाने में हम उसे हमसफ़र समझ बैठते हैं …….और यही भूल हमारे जीवन की सबसे बड़ी मूकदर्शिता बनती है ... जहाँ हम रेगिस्तान में दूर तक नज़र आते रेत के उन टीलों की तरह नज़र आते हैं ... जो तस्वीर में तो बहुत खूबसूरत लगते हैं ... मगर हकीक़त में वो खुद भी ना जाने कब से बरसात के आने का इंतज़ार कर रहे हैं , उन्हें भी नहीं पता ......... क्योंकि ज़िन्दगी एक कल्पना नहीं है …. उसे जीने के लिए हकीक़त में संघर्ष करना ही पड़ता है … लेकिन संघर्ष की कल्पना हमारा मन कभी नहीं करता ……….इसलिए कभी कभी व्यक्ति कल्पना और हकीक़त की कशमकश में ज़िन्दगी से बहुत दूर निकल जाता है …. जहां उसकी कल्पनाएँ ही उसे हमेशा कचोटती रहती हैं … और संघर्ष का सामना करने के लिए व्यक्ति का मस्तिष्क उदासीन हो जाता है ….और फिर एक बार संघर्ष की यथार्थ भूमि पर कल्पना की जीत हो जाती है ...….

और रण की लाल मिटटी , ज़िन्दगी को खुद ही अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते हुए देखती रहती है ………

-----------------------------------------------------------------------------------------

Thursday, September 17, 2009

मैं कौन हूँ.........?







मैं    कौन    हूँ.........?

मैं कौन हूँ …. कौन हूँ मैं ….? 
हर रात को रोशन करती हूँ... 
हर रोज़ अँधेरे से लड़ती हूँ... 
खुद को जला कर 
सबकी आँखों का सूनापन दूर करती हूँ ….. 
मैं कौन हूँ ….कौन हूँ मैं ….?

किसी परछाई में अपना चेहरा देखती हूँ... 
किसी परछाई से अपना चेहरा छुपाती हूँ... 
मुझे डर है मै वो नहीं … 
मैं कौन हूँ ….कौन हूँ मैं ….?

अपने ही हाथों में एक खिलौना हूँ... 
कहीं अपने ही सवालों की उलझन... 
दो पल का सुकून हूँ... 
कहीं बेचैन दिलों की धड़कन… 
मैं कौन हूँ ….कौन हूँ मैं ….?

वक़्त के हाथों से छूटी रेत... 
कहीं पास मुस्कुराता कोई अपना सा भेस... 
कहीं दूर से कानों में पड़ता कोई सन्देश... 
तो कहीं धुएं में बीती एक रात… 
मैं कौन हूँ ….कौन हूँ मैं ….?

……शायद यही है ज़िन्दगी का एक अधूरा रूप … 
एक जलती हुई लौ …जो आंसुओं में डूबे अरमां 
लिए अपने ही भीतर के अँधेरे से लड़ रही है … 
पल पल कुछ ख़त्म होने का सा एहसास दिलाती है …
बहुत कुछ चाहती है हमसे ज़िन्दगी …. 
मगर दबे लफ्जों की आहट धडकनों तक आ कर दम तोड़ देती है …

“ज़िन्दगी …. "

एक बेसबब इत्तेफाक है .. हमारी आँखों का जलता हुआ एक ख्वाब है … 
जो सच तो होता है … मगर धुएं की लपटें कभी इसका पीछा नहीं छोड़ती …….”

“ Life, just like a flower, 
 Feel its smell……….. 
Don’t pluck its leaves, 
Love it and save it…..”

******* विक्रम चौधरी *******