Saturday, October 12, 2013

" कसम ....."


















" कसम ....."

खाओ  तो  क़सम  ज़रा
नहीं  करेंगे  जो  किया ...
दिखाओ  गहरी  धुँध  में
धुरंधरों  को  भी  दीया ...!!

खाओ  तो  क़सम  ज़रा
आवाम  के  उफ़ान  की
प्रपंच  पे  विराम  की
घरौंदे  में  आराम  की ...

नहीं  करेंगे  जो  किया
मिल  के  फ़ैसला  करो ...
ज़िन्दगी  की  माँग  में
सिन्दूर  केसरी  भरो ....

ठिठोलियाँ  उबाल  दो
महल  के  रक्तपान  की
तिजोरियाँ  उछाल  दो
नेताओं  के  मक़ान  की ...

जिस्म  के  जहाज़  में
ना  बैठ  कर  ख़ुदा  बनो
हम  भी  हैं , तुम  भी  हो
ये  कह  के  या  ख़ुदा  कहो ...

उजाड़  दो  नसल
पढ़े  लिखे  निक़म्मे  आम  की
उबार  दो  फसल
लुटे  पिटे  असल  रूहान  की ...

ना  देखो  अपना  फ़ायदा
फ़क़ीर  की  पुकार  में
बदल  दो  आज  क़ायदा
बिको  ना  अपने  आप  में ...

खोट  वो  नहीं  जो
मिल  गया  है  तुमको  हार  में
है  बुरा  जो  मिट  गया  है
जीत  के  विचार  में ....

क्यों  भौंडेपन  की  तन छिली
आदत  से  तुम  मजबूर  हो
क्यों  चाँद  की  शक़ल  में
अपनी  खोजते  तुम  हूर  हो ....

निर्वस्त्र  है  इच्छा  सुखन  की
पर  नहीं  नंगी  है  वो ....
कपड़ों  में  नंगे  इस  जहां  को
देख  डर  जाती  है  वो ....
कहती  है  मुझको  तू  दिला
ऐसा  नया  कपड़ा  अब  कोई ....
देह  पर  चढ़  कर  जो  मेरी
फिर  कभी  फटता  ना  हो ....

है  खेल  ये  क़ातिल  बड़ा
यूँ  सबके  मुँह  औंधा  पड़ा
जिसने  भी  की  बातें  असल
वो  शख़्स  ही  सूली  चढ़ा ....

खाओ  तो  क़सम  ज़रा
नहीं  करेंगे  जो  किया ...
दबा  दो  क़ब्र  में  वो  सब
दरिंदों  ने  जो  भी  दिया ...

खाओ  तो  क़सम  ज़रा
नहीं  करेंगे  जो  किया ....
दिखाओ  गहरी  धुँध  में
धुरंधरों  को  भी  दीया ......२ , २ , २ !!


**** विक्रम  चौधरी *****

Saturday, January 5, 2013

" होगा जब सब ओर तमाशा ....."





















" होगा जब  सब  ओर  तमाशा ....."

लाख  पते  की  बात बाँटने
एक  पते  पर  आया  हूँ .... !
बेज़ारी  का  जाल  काटने
लफ़्ज़  कटारी  लाया  हूँ ....!!

होगा जब  सब  ओर  तमाशा
गीत  वही  फिर  गाऊँगा
अय्याशी   के गाल  की  गुत्थी
नाप  नाप  खुलवाऊँगा ......!!

जां  निगलेगी  बंजर  धरती
इन्सां  जब  अंधा  होगा
फल  पकते  ही  ग़ाज़  गिरेगी
हर  बगिया  दंगा  होगा  .....!!

और  बँटेंगी  गर्म  सलाखें
जिस्म  पे  कपड़ा  ना  होगा
हर  नुक्कड़  बस्ती  में  डंका
धर्म  का  बेढंगा  होगा
कान  में  लोरी  मौन  रहेगी
हर  बच्चा  गूँगा  होगा
रात  खुरों  की  चोट  सहेगी
यम  आज़ाद  खड़ा  होगा
चींख  नहीं  निकलेगी, फिर  भी
मौत  का  सन्नाटा  होगा ......!!

और  लुटेगी  लाल  चुनरिया
घोर  सियासी  कोड़ों  पर
वार  करेगी  गरज  के  हिंसा
बोझ  की  मारी  नारी  पर
बच्चे  बूढे  सब  राह  तकेंगे
कटेंगे  मर्दों  के  जब  सर .....!!

और  आसमान  से  गिरेंगी  परियाँ
ख़ाब  धराशाही  होंगे
नींद  में  बनते  ताजमहल
खण्डहर  की  धूल  चढ़े  होंगे
रात  बड़ी  गहरी  होगी
पलकों  के  द्वार  खुले  होंगे ....!!

चौखट  पे  कुत्तों  की  दस्तक
दहशत  में  भीग  रही  होगी
फाँके  में  घटते  दूध  को  माँ
करवट  से  सींच  रही  होगी
लम्बी  होंगी  दिन  की  घड़ियाँ
इच्छा  बेजान  पड़ी  होगी .......!!

तब  तोड़  ग़ुलामी  के  पिंजरे  को
दौड़  के  पंछी  आयेंगे
दाना  तिनका  छुपकर  थोड़ा
मेरे  घर  को  भी  लायेंगे .......!!

मैं  रहम  के  नंगे  हाथों  को
बेशर्म  खड़ा  फैलाऊँगा
पंछी  के  पूछे  जाने  पर
आदम  की  ज़ात  बताऊँगा ....!!

और, कहूँगा  पंछी  से  ले  चल
अपनी  ख़ामोश  ख़ुदाई  में
नर  हुआ  मदारी  मिट्टी  का
मन  की  मरदूत  बुराई  में .....!!

मैं  तान  के  चादर  फ़ुर्सत  की
चुपचाप  कहीं  सो  जाऊँगा
जब  खुलेंगी  आँखें  ज़िल्लत  में
काग़ज़  और  कलम  उठाऊँगा ...!!

होगा जब  सब  ओर  तमाशा
गीत  वही  फिर  गाऊँगा ............!!

******** विक्रम  चौधरी *********