" लफ़्ज़ और मैं ...."
अक़्ल की सौहबत में
कलम से मुलाक़ात हुई ...
काग़ज़ पर ख़्याल उतारे
लफ़्ज़ों की आदत हुई ...
लफ़्ज़ और मैं
अक्सर लड़ जाया करते थे
कभी लफ़्ज़ भारी पड़ते थे
तो कभी ख़्याल बाज़ी मारता था ...
मग़र एक दिन दोनों ने
आँखों की बात सुनी
और कानों से दुनियाँ
देखने का इरादा किया
और निकल पड़े दोनों
जहाँ जी चाहा ............
मैं लिखता गया
कभी बिकता गया
सीने से दर्द खुरच कर
स्याही में भरता गया ...
पंछी नदिया पर्वत
सागर की देखी करवट
गली मौहल्ले चौराहे
खोजे सभी दोराहे ...
गाँव घूमे शहर घूमे
कई बोली भाषा देखीं
कहीं बदी तो कहीं नेकी देखी ...
तो कहीं अपने ही हाल
लुटते नज़ारे देखे ...
बच्चों के हँसने में
अबला के रोने में
बूढ़ों के थकने में
और रेड़ी वाले की
कमर पर पड़ती लाठी में
कई बार खुद को देख
कभी रोया तो कभी हँसा ...
कई रंगों की सूरत
रूह छोड़ती मूरत
चौपाल पर टंगती इज़्ज़त ...
कहीं धर्म कहीं जात
कहीं राजनीति की शुरुआत
तो कहीं ढोंग में सने
गेरू कपड़ों में लिपटे
भूखे इन्सान भी देखे मैंने ...
सब एक जैसा ही था
बस अंतर इतना था
कि कोई पहले
तो कोई बाद में
बदल रहा था
सब बदल रहे थे ...
अपने इन्सान होने का
हर मुमकिन सबूत दे रहे थे ...
और शायद मैं भी
खुद को बदलने की
कोशिश में ख़त्म हो रहा था ...
मेरे कदम जहाँ थे
वहाँ रास्ता सकरा था ...
मैंने भीड़ में सवाल
पूछने की गुस्ताख़ी की ...
जवाबों से अपने हालात सुधारे ...
जीने की आदत हुई ...
नज़्म दिन पे दिन नयी होती गयी ...
मग़र मैं पुराना ही रहा ...
अल्लाह की क़ुर्बत में
ज़िन्दगी फिर साज़ हुई ...
काग़ज़ पर ख़्याल उतारे
लफ़्ज़ों की आदत हुई .......!
अब लफ़्ज़ भी चुप चाप
पड़े रहते हैं काग़ज़ पर
और मैं भी पड़ा रहता हूँ
एक कोने में सुख़नवर का
तमगा लिए .....................!!
अक़्ल की सौहबत में
कलम से मुलाक़ात हुई ...
काग़ज़ पर ख़्याल उतारे
लफ़्ज़ों की आदत हुई ...
लफ़्ज़ और मैं
अक्सर लड़ जाया करते थे
कभी लफ़्ज़ भारी पड़ते थे
तो कभी ख़्याल बाज़ी मारता था ...
मग़र एक दिन दोनों ने
आँखों की बात सुनी
और कानों से दुनियाँ
देखने का इरादा किया
और निकल पड़े दोनों
जहाँ जी चाहा ............
मैं लिखता गया
कभी बिकता गया
सीने से दर्द खुरच कर
स्याही में भरता गया ...
पंछी नदिया पर्वत
सागर की देखी करवट
गली मौहल्ले चौराहे
खोजे सभी दोराहे ...
गाँव घूमे शहर घूमे
कई बोली भाषा देखीं
कहीं बदी तो कहीं नेकी देखी ...
तो कहीं अपने ही हाल
लुटते नज़ारे देखे ...
बच्चों के हँसने में
अबला के रोने में
बूढ़ों के थकने में
और रेड़ी वाले की
कमर पर पड़ती लाठी में
कई बार खुद को देख
कभी रोया तो कभी हँसा ...
कई रंगों की सूरत
रूह छोड़ती मूरत
चौपाल पर टंगती इज़्ज़त ...
कहीं धर्म कहीं जात
कहीं राजनीति की शुरुआत
तो कहीं ढोंग में सने
गेरू कपड़ों में लिपटे
भूखे इन्सान भी देखे मैंने ...
सब एक जैसा ही था
बस अंतर इतना था
कि कोई पहले
तो कोई बाद में
बदल रहा था
सब बदल रहे थे ...
अपने इन्सान होने का
हर मुमकिन सबूत दे रहे थे ...
और शायद मैं भी
खुद को बदलने की
कोशिश में ख़त्म हो रहा था ...
मेरे कदम जहाँ थे
वहाँ रास्ता सकरा था ...
मैंने भीड़ में सवाल
पूछने की गुस्ताख़ी की ...
जवाबों से अपने हालात सुधारे ...
जीने की आदत हुई ...
नज़्म दिन पे दिन नयी होती गयी ...
मग़र मैं पुराना ही रहा ...
अल्लाह की क़ुर्बत में
ज़िन्दगी फिर साज़ हुई ...
काग़ज़ पर ख़्याल उतारे
लफ़्ज़ों की आदत हुई .......!
अब लफ़्ज़ भी चुप चाप
पड़े रहते हैं काग़ज़ पर
और मैं भी पड़ा रहता हूँ
एक कोने में सुख़नवर का
तमगा लिए .....................!!