" ना जाने कौन ......"
ना जाने कौन रोज़ रोज़
मेरे ख़ाब का रंग तय कर जाता है ...
शुरुआत तो गुलाबी होती है
मग़र ख़ाब के ख़त्म होते होते
रंग काला सा पड़ जाता है ...
सूरज के उफ़नते सुनहरी धारों में
ख़्याल सुनहरा होते होते
राख़ सा पड़ जाता है ...
चाँद के शर्मीले ख़ूबसूरत एहसास
की ठंडक को छूते छूते
साँप सा डस जाता है ...
लहरों पे हिलोरे लेती कश्ति को
माझी किनारे तक लाते लाते
पतवार से हट जाता है ...
सुर्ख़ होता आँगन में गुलाब
खिलते खिलते अचानक
शाख़ से गिर जाता है ...
ना जाने कौन मेरी शर्म की
चादर को सरे राह
मैला सा कर जाता है ...
आजकल एक क़बूतर ने
मेरे कमरे की अलमारी में
घर बना लिया है ...
लोगों का कहना है कि
क़बूतर का आना
अपशगुन होता है ...
मैं कहता हूँ , कि कोई
मेरी छाओं में पलता है
तो मेरा क्या जाता है ...
ये मुआमला थोड़ा पेचीदा है
बड़े एहतेराम से कहा जाता है ...
कोई मिल के रब से भी खुश नहीं ...
कोई दूर से ही हक़ अदा किये जाता है ...
और हम साँस भी लें तो धुआँ आता है ...
जिस्म रूह की लपटों में जला जाता है ...
ना जाने कौन रोज़ रोज़
मेरे ख़ाब का रंग तय कर जाता है ...
शुरुआत तो गुलाबी होती है
मग़र ख़ाब के ख़त्म होते होते
रंग काला सा पड़ जाता है .......!!
********* विक्रम चौधरी **********
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