" ज़र्रे......"
त्यौहार के दिन घर सजा ,
नया सजावट का सामान आया ...
कहीं गुलदस्ता , कहीं कालीन
तो कहीं चित्रकारी थी हसीन...
पुराने सामन को कचरे वाला
अपनी गाड़ी में डाल रहा था ...
अपनी कमीज़ से बार बार
सामान से लगी धूल झाड़ रहा था ...
धूल को , ना घर में ना गाड़ी में
कहीं भी जगह नहीं मिली ...
ज़मीं पर बिखरे ज़र्रे
बार बार घर के अन्दर
जाने की कोशिश कर रहे थे ...
कभी किवाड़ के पीछे बनी दरारों में ...
तो कभी पलंग के नीचे पड़े जालों में ...
हर जगह छुपने की कोशिश की
मग़र आज मालिक ने सारा घर धो दिया ...
हमारा घर हमने नए मेहमानों के लिए खो दिया ...
हर आकार की नाली से बहते हुए हम बाहर निकले ...
जा पहुंचे सबके घरों से निकले अपने साथियों के पास ...
सबकी शक्ल पर एक ही बात थी ,
थोड़ी सी आँख मेरी भी उदास थी ...
सरे राह जो मातम मना रहे थे हम ...
कभी चप्पल कभी सैंडल तो कभी जूतों के
नीचे अपनी अपनी जान बचा रहे थे हम ...
सबने एक दूसरे का हाल पूछा
गले मिले तोहफ़े दिए ठहाके लगे ...
मिठाईयों का आदान प्रदान हुआ ..
मग़र हमको किसी ने झुक कर भी ना देखा ...
हम देखते रहे अपने अपने मालिकों की तरफ़ ...
वो बार बार हमको अपने घर से
चुन चुन कर चतुराई से बुहार रहे थे ...
हमने भी मन कड़ा कर लिया
मग़र हिम्मत नहीं हारी ..
हर दिन एक के बाद एक
सारे साथी फिर वापस
अपने अपने घरों में जा बसे...
घर में घुसते ही मस्ती शुरू...
हर ज़र्रे ने अपना अपना
ठिकाना चुन लिया ..
क्योंकि हम लोग
जात पात , ऊँच नीच , धर्म विचार
और रंगों में भेद भाव नहीं करते ...
और ना ही यहाँ कोई कुर्सी है ...
जिस पर बैठने की लड़ाई ...
हमारी हरी भरी दुनियां को उजाड़ दे ...
सुकून से मिल बाँट कर
एक दूसरे का हाथ थाम कर
साल दर साल जमे रहते हैं हम ...
बहुत थक गए दोस्त कमर भी दुखने लगी ..
अब ज़रा आराम कर लिया जाये ............!!
भैया ... क्या हुआ ... जाओ यार .. सोने दो .......!
कविता ख़त्म हो गयी ...
हम इंसान नहीं हैं ...
जिनकी ख़्वाहिशें कभी ख़त्म ही नहीं होती ...... !!!
******************* विक्रम चौधरी **********************
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