" अब जब भी इंसान बनूँ ......"
कभी मौन कभी शोर तो कभी परब्रह्म
हर पल इसी धुन की उधेड़ बुन में रहा ...
कभी ख़ाली कभी भरा कभी ख़ुद से डरा ...
मैं हर पहर बस एक ही ज़िद से मरा ...
कि अब जब भी इंसान बनूँ
तो फ़क़त इंसान ही रहूँ ...!!
अभी मैं इंसान के भेस में कुछ और हूँ ...
ख्वाहिशों में सुलगते थपेड़ों का दौर हूँ
कभी विक्रम कभी लेखक कभी मूरख ...
बस इन्हीं गिरहों में उलझा सा कौर हूँ ...
मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ ...
मग़र जो भी हूँ इंसान नहीं हूँ ...
ना जाने कब ये दौड़ ख़त्म होगी ...
और ना जाने कब मैं इन्सां बनूँगा ...
कभी ख़ुद से कभी दुःख से कभी सुख से
कभी साँस देती हवाओं के अनदेखे रुख़ से
अक्सर यही पूछा करता हूँ
एक क़ायनात एक ख़ुदा
फिर भी हर शख्स जुदा ...
क्या रब से कहूँ क्या सब से कहूँ
क्या बढ़ती हुयी कशमकश से कहूँ ...
कि अब जब भी इंसान बनूँ
तो फ़क़त इंसान ही रहूँ ...!!
!*** विक्रम चौधरी ***!