“ आज ज़िन्दगी ने ….”
आज ज़िन्दगी ने मुझसे फिर से मुलाक़ात की …
मानो एक बच्चे की ख़ता मैंने आज माफ़ की ….
अपने हाथों से लाक़ीरों के फ़रमान उतारे …
मानो आईने में फिर अपनी ही तस्वीर साफ़ की ....!
खट्टा मीठा हर स्वाद का नींबू बड़े चाव से चखा …
पास खड़े नीम की कड़वाहट को भी अपनी जीभ पर रखा …
पीपल से गूलर गिरे थे गिलहरी के दाँतों से आधे चबे थे …
अमरुद कच्चे थे मग़र उन पर भी कई क़िस्म के खोंट पड़े थे …
मानो एक अछूत को छू कर अपनी ख़ुदी पाक़ की ….
शाम हुई सूरज ने अपनी रुख्सती का पैग़ाम दिया
चाँद ने भी धीमे से झपकी मार कर आग़ाज़ किया
घर जाते वक़्त रास्ते में एक टूटा सा घर देखा
खिड़की से झाँका तो एक अबला का उलझा सा सर देखा
तुमने बच्चों को बेचादर ज़मीन पर सुला रखा है
और ख़ुद पागलों की तरह चारपाही पर जम कर बैठी हो ....
कुछ देर चुप रहने के बाद उसके लफ़्ज़ निकल कर बोले …
एक को अफ़ीम चटा कर सुलाया है
और दूसरा अब इस दुनियाँ में नहीं है ….
आँख रोयी नहीं बस अश्क़ों ने बहने की शुरुआत की
मानो दानव की बस्ती ख़ुद मैंने ही आज आबाद की ….
अपनी खाल से अपने इन्सां होने के सारे सबूत उतारे
मानो ख़ाली हो कर फिर से भरने की मैंने मुराद की ….
कुछ देर तक उस औरत और मेरे बीच कोई बात नहीं हुई …
मैंने एक एक करके घर की हर चीज़ पर अपनी निग़ाह डाली …
कपडे , बर्तन , खाना , खिलौने जैसा कुछ नहीं था वहाँ …
दीवारें सीलन से गीली थीं , हर कोने में मकड़ी का जाला था …
मैं कुछ ना कह सका ज़ुबान पर ताला सा पड़ गया था …
जो झूठन मैं अपने बच्चों के लिए घर ले जा रहा था …
वो वहीँ उसकी चारपाही पर रख कर मैं बाहर आ गया …
काल को कुछ ना मिला तो भूख से ही ज़िन्दगी खा गया …
आज ज़िन्दगी ने फिर कैसी यूँ मुझसे मुलाक़ात की
मानो किसी क़त्ल में मैंने भी शागिर्दी हयात की …
पंछी के दिल में पलते सारे ख़यालात उतारे
मानो किसी नज़्म की कीमत यूँ मैंने बरबाद की ….!!
**************** विक्रम चौधरी ******************
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