Saturday, September 19, 2009

“ कल्पना और हकीक़त …...”











“ कल्पना और हकीक़त …..” कल्पनाएँ कभी हकीक़त में नहीं बदलतीं , यदि उनमें यथार्थ का आधार न हो तो ….. जीवन की कल्पना ज़िन्दगी के संघर्ष पथ के चौराहों की एक ऐसी राहगीर है …जो हमेशा आपके साथ चलती है …मगर अनजाने में हम उसे हमसफ़र समझ बैठते हैं …….और यही भूल हमारे जीवन की सबसे बड़ी मूकदर्शिता बनती है ... जहाँ हम रेगिस्तान में दूर तक नज़र आते रेत के उन टीलों की तरह नज़र आते हैं ... जो तस्वीर में तो बहुत खूबसूरत लगते हैं ... मगर हकीक़त में वो खुद भी ना जाने कब से बरसात के आने का इंतज़ार कर रहे हैं , उन्हें भी नहीं पता ......... क्योंकि ज़िन्दगी एक कल्पना नहीं है …. उसे जीने के लिए हकीक़त में संघर्ष करना ही पड़ता है … लेकिन संघर्ष की कल्पना हमारा मन कभी नहीं करता ……….इसलिए कभी कभी व्यक्ति कल्पना और हकीक़त की कशमकश में ज़िन्दगी से बहुत दूर निकल जाता है …. जहां उसकी कल्पनाएँ ही उसे हमेशा कचोटती रहती हैं … और संघर्ष का सामना करने के लिए व्यक्ति का मस्तिष्क उदासीन हो जाता है ….और फिर एक बार संघर्ष की यथार्थ भूमि पर कल्पना की जीत हो जाती है ...….

और रण की लाल मिटटी , ज़िन्दगी को खुद ही अपनी आँखों के सामने दम तोड़ते हुए देखती रहती है ………

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