Monday, September 21, 2009

“ आत्मा का हरण …..….”























“ आत्मा का हरण …..….”




जिस्म से आईने तक का फासला ….इंसान के वजूद का एक भ्रमित सच है …. जिसके भ्रम में हम खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं .....
अपने रूप की परतों से ढकी अविश्वसनीय सूरत को हम , मन ही मन निहारते रहते हैं ... और अपने स्वार्थ और परिस्थितियों के अनुरूप जो रूप हमको चाहिए , उसका बड़ी ही खूबसूरती से आलिंगन कर लेते हैं , और ये भूल जाते हैं , की ये मात्र हमारी कल्पना है , कोई प्रकृति या इश्वर का सच नहीं ..... जिसे ओढ़ कर हम खुद को दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान समझ लेते हैं ........



और खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं ..................



रौशनी हो या अँधेरा , सच की तस्वीर कहीं नहीं छुप सकती . मगर फिर भी हम रौशनी के अस्तित्व के समक्ष अँधेरे को अस्तित्व विहीन कर देते हैं . जबकि अँधेरा भी खुद में एक सम्पूर्ण संसार है ..........

बस अंतर इतना है की हमारी आँखें उस अँधेरे में अपने रूप को नहीं देख पाती … और एक ही पल में हम अँधेरे को नकार जाते हैं … क्योंकि वो हमे हमारी सुन्दर तस्वीर नहीं दिखाता .....… इसलिए हम अपनी ही मर्ज़ी से अपने संसार को रौशनी के हवाले करके …..



खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेते हैं ……...….



कौन कहता है  कि आत्मा नहीं मरती … आत्मा मरती है … हाँ .... आत्मा मरती है ......
जब आत्मा का खून जिस्म की पनाह में जा कर रूप की झूंठी सुन्दरता को सहेजता है ,,, जब अर्थ की पैमाईश आत्मा की आजमाईश से होती है .... जब रिश्तों का भरम माया के जंजाल से निकल कर इंसान की फितरत में बदलता है ...... जब वक़्त की बिसात पर इंसान खुद बाज़ीगर बन कर चाल चलता है ...... जब अजन्मे बच्चे की हसरत पे इंसान खुद क़यामत के रास्ते खोल देता है ..... जब माँ की गोद में बैठ कर तिजारत की बात होती है ..... जब परमात्मा के बनाए क़ायदों पर इंसान सवाल उठाता है .........
तब ..... सच में आत्मा मर जाती है ..... किसी ने हरण किया है हमारी आत्मा का …. पता नहीं क्यों कुछ भी होने का एहसास ख़त्म हो रहा है …….. सब चलता हुआ दिखता है .... मगर इंसान खुद को जब रुका हुआ मान ले तो सच में हमे समझ लेना चाहिए .... कि  कहीं ना कहीं हमारे अन्दर कुछ ऐसा ग़लत हो रहा है ... जिसका कोई समाधान हमारे पास नहीं है …. और हाँ ..., जब हम किसी समस्या को सुलझाने में असमर्थ हो जाते हैं ..... या फिर ये कहें  कि उस समस्या का कोई हल ही नहीं है …. तो समझो …

सच में हमारी आत्मा का किसी ने हरण किया है ………….

ना जाने ये कैसा अनचाहा सच है … इंसान जिंदा तो है … मगर आत्मा का कहीं पता नहीं …. हम खुद ही अपने आप से दूर होने के रास्ते खोजते रहते हैं ….
कभी मंदिर में , कभी मस्जिद , कभी  गुरूद्वारे  में कभी गिरजा घर में …. तो कभी किसी ऐसी जगह जहाँ इश्वर के होने का प्रमाण मिलता हैं …. …...
हम खुद ही अलग अलग रूप में इस भ्रम का शिकार हैं ….. क्या ढूँढने निकल पड़े हैं …?  ये खुद को भी नहीं मालूम … और अगर किसी से पूछो , तो वही इंसान हमे इश्वर की अलग अलग परिभाषा समझा कर सन्तुष्ट करने की कोशिश करता है ... जो हमारी ही तरह इस भ्रम का शिकार है .......



और खुद ही अपनी आत्मा का हरण कर लेता है ...............



हर किसी को एक कठिन सी दिखने वाली सीड़ी ही सच नज़र आती है ….. कोई सीधे तरीके से आत्मा के रूप को समझना ही नहीं  चाहता ....…
बस एक बार … मात्र एक बार इंसान इश्वर को सीधे सीधे रास्ते समझने की कोशिश करे तो सब कुछ आसान हो सकता है …. मगर हम तो खुद ही उस तक पहुँचने के रास्ते को कठिन बनाते जा रहे हैं …. जबकि वो हमेशा हमारे ही साथ चलता , बैठता , उठता , खाता , पीता , सोता और सांस लेता है … वो हमसे एक पल के लिए भी दूर नहीं होता … मगर हम ही हैं …. जो इश्वर से दूरी बना कर चलते हैं ..... व्यर्थ के कर्म - काण्ड और नीतियों के वशीभूत हो कर हम अपनी आत्मा को इस क़ाबिल ही नहीं बनने देते  कि वो खुद हमसे बोल सके  कि  , मैं जिंदा हूँ .. और … मै ही इश्वर का एक सच्चा रूप हूँ … .
आत्मा सारा जीवन उस शरीर में धारण मन को ये समझाती रहती है ….  कि  बस एक बार वो अपनी आत्मा को महसूस तो करे ….. और देखे  कि  … सच खुली आँखें ज़यादा बताती हैं … या बंद आँखों से दिखने वाला आध्यात्मिक संसार सच्चा है ….. मगर नहीं … हमे शायद कुछ और ही चाहिए ….. हम कभी अपनी आत्मा को महसूस नहीं कर पायेंगे ..…
बस ... मन , दिमाग़ और  समाज  के  फलते  फूलते  जिस्म  के  श्रृंगार  के  अधीन  हो  कर  …..

खुद ही अपनी आत्मा का हरण करते रहेंगे ...... शायद यही हमारा सच है..……………


“ आत्मा एक ऐसा रूप है …. जिसे कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता … … मगर हम खुद अपनी ही मूर्खता के वशीभूत हो कर …… उसके हरण की तैय्यारी कर लेते हैं ……
और हाँ … कभी कभी हम ऐसे जंजाल में फँस जाते हैं  कि  कब हमारी आत्मा का हरण हो जाता है … हमे पता ही नहीं चलता ……… आत्मा हो कर भी अपना प्रभाव भूल जाती है …. शरीर लगता है  कि मानो किसी शिकारी की क़ैद में हमेशा के लिए क़ैद हो गया है … और आत्मा शरीर को ढूँढने निकल पड़ी है … लेकिन वो तो खुद नहीं जानती  कि  उसका तो कब का हरण हो चुका है …. …. …. अब तो बस सब आईने की तरह है … दिखता तो सब है , मगर छूने का एहसास ख़त्म हो चुका है …....”



************** विक्रम चौधरी ***************

No comments: