ज़ुबां का क्या है ...
जैसे किसी झुकी पलकों में सिमटी
गरदन से पाँव तक ढकी लड़की को
छिनाल कह दिया ...
सवाल उठने से पहले खुद ही जायज़ा ले कर कह दिए ...
जैसे किसी ज़ंजीरों में जकड़ी
तलवों तक पानी में ठहरी कश्ती को
निढाल कह दिया ...
ज़ुबां का क्या है ..
ना हड्डी है ना कायदों का निबाह है ...
उगल देती है जो हलक़ में आता है ...
दिमाग़ के काबू से परे हो जाए तो फिर क्या है ....
बस ज़ुबां है कहने को धुआं है ..
तिनका भर आग दिखे तो फूँक दे ...
फिर जंगल क्या और शहर भी क्या है ...
ज़ुबां है .. ज़ुबां का क्या है ...................
लफ़्ज़ों को उठा कर जो सलाम कर दे ..
तो ज़माने को भी अपना ग़ुलाम कर दे ...
एक इशारा भी ग़लत खुलेआम कर दे ..
तो छुप कर भी जीना हराम कर दे ...
फिर रहम क्या वहम क्या ...
और ये तमाशा भी क्या है ....
ज़ुबां है ... ज़ुबां का क्या है ...
ना हड्डी है ना कायदों का निबाह है ......
************* विक्रम चौधरी *******************
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