" लफ़्ज़ के बदले...."
मोहरें जेब भर देता , कुर्ता मखमली देता ...
हया कुछ कम मुझे देता ..
ज़हन चालाक कुछ देता ...
इलाही लफ़्ज़ के बदले ज़मीं गज भर की तू देता ...
यूँ अपने हर्फ़ ने अब ताक पर रख दी है हर नेमत ...
दिया तूने जो इल्मे हाल उसे चांदी सा कर देता ..
उठी ख्वाहिश पे पिंजरे की मुझे तू शक्ल ना देता ...
सरे बाज़ार हैरत की मुझे वो अक्ल ना देता ...
मेरी मासूम सी मंजिल को दोहरी दौड़ ना देता ...
मेरा हक़ मेरी पेशानी पर मजबूर रहता है ....
सीना दर्द के बदले गिरेबां देख फटता है ...
तबाह करने की मौला अच्छी ये चाल है तेरी ...
मुक़द्दर छू ही भर तो लूं क्या मजाल है मेरी ...
नज़ारा वक़्त के हाथों से कुछ मुझको भी तू देता ...
इशारा बोलने का इस भीड़ में एक बार तू देता ...
आदत प्यास में पानी को तू पीने की ना देता ...
खुली हर प्यास की मौज़ूदगी में आस ना देता ...
मुझे मायूसियत के दौर का मर्तब ना तू देता ...
देना ही था अल्लाह तुझे ग़र मर्ज़ ही ऐसा ...
दवा देता ना तू देता दुआ झोली में तो देता ....
बिका है हाथ हाक़िम के मेरा ये जिस्म तक मालिक ...
फ़क़त बिकने को अब लगता है बस ये रूह है बाक़ी ....
कुछ रहम ही करता खुदा कोई मन्त्र ही देता ....
अदा जीने की ग़ुरबत में आला शौक़ीन तू देता ...
इलाही लफ़्ज़ के बदले ज़मीं गज भर की तू देता ...
****************** विक्रम चौधरी ***********************
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