" मेरे अन्दर ....."
कैसे ख़ाली ख़ाली सब
समाया हुआ है मेरे अन्दर ...
कोई मुझसे ही बिछड़ कर
सवाली हुआ है मेरे अन्दर ...
ख़लिश भी है तो रंग चढ़ी हुई ...
राख़ सा हो कर भी ग़म
रंगीन हुआ है मेरे अन्दर ...
सबने बारिश में काग़ज़ उठाये ...
बना लीं अपनी अपनी कश्तियाँ ...
हर मोड़ पे बहते पानी में
छोड़ दीं अपनी अपनी कश्तियाँ ...
सारी कश्तियाँ इकठ्ठा हो कर
एक के पीछे एक दौड़ रहीं थी ...
अलग रंग अलग ढंग कोई थी मलंग ...
लग रहा था जैसे कोई मेला हो ...
मुझे तो झूलों और नौटंकियों
की भी आवाज़ सुनायी पड़ रही थी ...
मैंने अपनी भी नाव बनायी
तरह तरह के रंग भी भरे थे उसमें ...
मग़र कमबख्त मेरे घर के सामने ...
रास्ता ऊबड़ खाबड़ नहीं है ...
पानी बह कर सीधा बंद नालों में चला जाता है ...
मेरी छत से दिखता है वो गन्दा सा मौहल्ला ...
जहाँ बरसात का पानी बह कर कहीं जाता ही नहीं ...
थमा रहता है उनकी सकरी सी गलियों में ...
बच्चे बूढ़े और क्या औरतें सब एक साथ ...
पानी में बहती अपनी कश्तियों को देख कर ...
ऐसे ख़ुश हैं जैसे मानो कोई त्यौहार आ गया ...
और मैं सुन्दर से अपने काँच के घर में बैठा ...
बार बार अपनी मुरझाई सी सूरत देख कर ...
मुस्कुराने की कोशिश कर रहा हूँ ....!!
कैसे खिंचा खिंचा सब
बिगड़ा हुआ है मेरे अन्दर ...
सब हो कर भी कुछ नहीं
बूँदें पा कर भी खुश नहीं ...
कैसे ख़ाली ख़ाली सब
समाया हुआ है मेरे अन्दर ...!!
******** विक्रम चौधरी ********
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