" जिस्म ......"
मेरे कमरे की खिड़की से हो कर मेरे जिस्म
तक आ कर अपना दम तोड़ देती है ...
बार बार मुझे नींद से जगाने की कोशिश करती है ..
कभी कान पर कभी नाक पर ..
कभी आँखों पर कभी बाहों पर ..
कभी पैरों की एड़ी से फिसल कर चारपाही से
नीचे गिरती सम्भलती हवा मुझे चुटकियाँ काट कर
जगाने की कोशिश करती हैं ....!
कभी ठंडी हो कर सिहरने की वजह बनती है ...
कभी ग़र्म हो कर बेचैन सा मुझे करती है ...
कभी बसंत बन कर सौंधी सी ख़ुशबू मुझे देती है ...
तो कभी सन्नाटा बन कर हैरान मुझे करती है ...
बस एक बार मेरे होंठ हँस भर दें ...
यही चाहती है बस मुझसे हवा ....!
मैं कोशिश करता हूँ उसे छूने की
मग़र मेरी हिम्मत पल पल मुझे
मेरे ही भीतर खींच रही है ...
मेरे सिसकने पर मजबूर नहीं है मेरा जिस्म ...
बस कमबख्त ज़हर ही कुछ धीमा है ...!
ज़रा धीरे धीरे से चढ़ रहा है ...
बड़े आहिस्ता आहिस्ता मेरी रूह को आज़ाद कर रहा है ...
आख़िरी साँस तक रुलायेगा मुझे ...
मेरे ख़त्म होने तक मेरे ज़िन्दा रहने की वजह बतायेगा मुझे ...
इतनी आसानी से निज़ाद नहीं पाऊंगा मैं ...
इतने बरस इस रूह को अपने जिस्म में
क़ैद करने की सज़ा भी पाऊँगा मैं ...
पाक़ साफ़ चाँदनी सी शीतल
शुरू और अंत की फ़िक्रों से दूर ...
लालच , गुनाह , लाचारी , हया ,
दोहरी चित्रकारी और झूठे अधूरेपन से दूर रहती
इस रूह को बेवजह ही खोखली मिट्टी से लाद रखा था मैंने ...!
इसे मैला करने में मेरा ही हाथ है ....
और अब इसे इसके असली रूप में
लाने की ज़िम्मेदारी भी मेरी है ...!
बस अब और नहीं .......................
मैं जिस्म हूँ , इतना साफ़ नहीं रह सकता ....!
इसलिए रुखसत कर रहा हूँ अपनी हमराह रूह को ...
जा .... अब दोबारा किसी जिस्म की पनाह मत लेना ...
वरना , लोग कहेंगे .... तेरी आदत है जिस्म का हिस्सा होना ...!
जो पाक़ रहने से डरती है ....!
कि बार बार जिस्म की फ़िराक़ में
दर - ब - दर चौखटें चखती है ....!
बस अब और नहीं ........................
मुझे मुआफ़ करना ....
ख़ुदा हाफ़िज़ ... मेरी दोस्त ...
तेरा क़तरा ...
" जिस्म .."
*************** विक्रम चौधरी **************
1 comment:
very nice
Post a Comment