Friday, January 13, 2012

" लकीरें ....."




















" लकीरें ....."

मैं रोज सुबह उठते ही 
अपनी हथेली की लकीरों को देखता हूँ ...
शायद आज कोई नयी रेखा बनी हो ...
टपका टपका सा है .. रफ़्तार ही बड़ी धीमी है ...
कमबख्त सूई की नोक की तरह बढ़ती हैं ...
अब तो आँखें भी चुंधिया गयीं देखते देखते ...
साल दर साल मौसम संग मौसमी बारिश की बूँदें ...
मेरी उधड़ी हुयी क़िस्मत को कुछ अलफ़ाज़ देती बूँदें ...
अब मेरी सुबह ही नहीं होने देतीं ...
रात भर इतना शोर करती हैं ..
कि सूरज के उगने की आहट 
मेरे कानों तक पड़े उससे पहले 
अपनी छुअन से मुझे मद्होश कर देती हैं ....

मुझे मुआफ करना मैं झूठ बोल रहा था ...
मैं अपनी जगह अपने ख़ाब तौल रहा था ..
उम्र के साथ साथ मुझे भी समझ गया 
कि ये सिहरता सा खेल लकीरों का नहीं है ...
ये तो उस ऊपरवाले का शौक़ - - नवाज़िश है ...
जो एक तरफ़ हाथ भी देता है 
और लकीर भी छीन लेता है ...
मैं शुक्रगुज़ार हूँ .. 
कि मौला ने मुझे हाथ दिए ...
लकीरें तो मिट गयीं ...........
मग़र उनके बढ़ने की हसरत अब तक बाक़ी है ...!! 

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विक्रम चौधरी ************!!

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