" सपने ......"
मैं बैठा बैठा आकाश को तकता रहा
और कब सपने आँखों से निकल कर
रात के सन्नाटे में ग़ुम हो गए ...
पता ही नहीं चला ......................!!
मैं खोखला सा ही कहीं बजता रहा
और कब सपने लफ़्ज़ों से निकल कर
बाज़ार की दुकानों में शर्म खो गए ...
पता ही नहीं चला ........................!!
मैं चेहरों में पल कर चेहरा बनता रहा
और कब सपने अपना भेस बदल कर
मेरे तकिये के सिरहाने छुप सो गए ...
पता ही नहीं चला ........................!!
मैं जिस्म को सिल कर चलता रहा
और कब सपने साँसों से निकल कर
शमशान के अहाते में चुप हो गए ...
पता ही नहीं चला .......................!!
अब सपने देखने से डर लगता है
अब ख़ाब में सोना चाहता हूँ मैं ...
बस दुआ करता हूँ , ख़ाब ख़ाब ही रहे
सपना ना बने .............................!!
*********** विक्रम चौधरी **************
1 comment:
wow ... very nice
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